और की चाह (लघुकथा )

जयामोहन प्रयागराज
यह और शब्द ऐसा है की यदि मन में बस गया तो कभी संतुष्ट नहीं होने देगा। बात पुरानी है ।मुंशी प्रेमचंद जी का इकलौता बेटा मानू था।उसके जन्मते ही मुंशी जी की पत्नी स्वर्ग सिधार गई थी। बड़े लाड प्यार से उन्होंने अपने बेटे मानू को पाला था।बहुत लोगो ने मुंशी जी से दूसरे विवाह को कहा पर पर मुंशी जी मना कर देते थे नहीं नहीं मैं अपने बच्चे को किसी और औरत के हाथ में नहीं देनेकी सोच सकता पता नहीं वह कैसे मेरे बच्चे को रखें। मानू शुरू से ही बहुत ही कुशाग्र बुद्धि का था ।हर कक्षा में प्रथम आता बस मानू में एक ही कमी थी और वह थी उसकी और और और की चाह । सिविल परीक्षा में वह पास हुआ बीडीओ के पद पर नियुक्त हुआ मुंशीजी सारे मोहल्ले में मिठाई बांटे।
बेटा ज्वाइन करने नहीं गया सभी ने समझाया कि बेटा नौकरी ठुकराते नहीं है । पर उसकी जिद थी कि वह पीसीएस नहीं वह आई ई एस बनेगा ।फिर वह बैठा परीक्षा में भाग्य प्रबल था वह जो भी परीक्षा देता चयनित हो जाता आईएएस की परीक्षा में भी चयनित हुआ ।मुंशी जी परेशान थे समझाएं भैया इसे तो ज्वाइन कर लो पर नहीं मैं एलाइड नहीं मैं तो मैन ,मुख्य पास हो कर ज्वाइन करूंगा।
मुंशी जी परेशान थे।वो अपने वकील साहब से कहते भैया इसे समझाए। मैं भी नौकरी लगने पर इसकी शादी कर अपने फर्ज से मुक्त हो जाऊ। मानू नही माना।समय गुजरता रहा।एक से एक बढ़ कर आई नौकरी मानू ने छोड़ दी। अब उम्र की तय सीमा भी खत्म हो गई। भाग्य ने साथ देना छोड़ दिया। मानू अब बाबू बनने को भी तैयार था पर उसमें भी चयनित नही हो पा रहा था।मुंशी जी दुखी हो कर कहते भगवान का कोप है।तुमने परसी थाली ठुकरा दी।अब पछताने से क्या होता ।मुंशी जी अपने अरमानों को दिल में लिए दुनियां से विदा हो गए। और की चाह ने मानू को बर्बाद कर दिया।आज मानू डाक घर में डाक छांटता अपना जीवन गुजार रहा है।