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अपन तो पूछेंगे ! सिस्टम क्या होता है, मैं बताऊँ सिस्टम के आकाओं ???? और रही बात सवाल उठाने की तो अपन तो पूछेंगे ही! “सुख के दिन आयें तो लड़ लेना,दुःख तो साथ रोने से ही कटता है।- मुंशी प्रेमचंद

जनवाद संवाददाता

महामारी के दौर में सहयोग करने की अपेक्षा के क्रम में पर्दे के पीछे आखिर हुआ क्या,आइए आपको हम बताते हैं, क़रीब दस हज़ार आई. ए. एस. ऐसपिरेंट्स ने ग्रुप बनाकर ऑक्सीजन सिलेंडर, रिफ़िलिंग, ब्लड , प्लाज्मा, दवाओं और बेड्स की पूरे भारत में अवेलिबिलिटी की डिटेल्ज़ निकाली,अभिनेता सोनू सूद जैसे तमामो-तमाम लोगों और तमाम कवियों ने भी वही समान प्रोसेस अपनाकर सृजन करते हुए खामोशी के साथ बड़े-बड़े ग्रुप्स बनाए,डॉक्टरों से जरूरतमंद मरीजों को एडवाइज हेतु निवेदन किया और उन्हें तैयार किया भी | ऑब्वियसली इनके पास कोई कॉल सेंटर तो था नही, इन्होंने ख़ुद एक-एक नम्बर पे कॉल कर एक-एक लीड वेरिफ़ाई दूसरे मेंबर्स से करायी |

क्षमा कीजिएगा लेकिन लोगों को सिलेंडर और बेड्ज़ दिलवाने का काम और जरूरतमंदों को घर से खाना बनवा कर उपलब्ध कराने का काम गली मुहल्लों के उन्हीं लौंडों ने सम्भाला,जो आपके सिस्टम की नजर में एकदम निकम्मे है और लीड्ज़ निकालने और वेरिफ़ाई कराने का काम समाज हेतु सहयोग की भावना रखने वाली लड़कियों ने भी बखूबी किया| लेकिन सरकार,यह वही निठल्ले- नाकारा नवयुवा हैं,जिनके लिए सरकारों के पंचवर्षीय प्लान रेगिस्तानी शुष्क कुएं साबित होते हैं और प्राय: जिनका भविष्य नहीं बना पाते,महोदय यह वही पीढ़ी है जिन्हें आपके सिस्टम के लोग ….जोश में होश खोया हुआ, आवारा और उत्श्रंखल बताते हैं|

एक एक्जामपल देता हूँ कि सोसायटीज कैसे सिस्टेम बना के काम कर रही हैं … गुड़गाँव में मेरे दोस्त की सोसायटी के क्लब में ही एक ऑक्सिजन बेड का सेटअप लगा दिया, एक 24×7 डेडिकेटेड डॉक्टर ऑनलाइन हेल्प के लिए हायर किया,दवाईं प्रवाइड कराने की ज़िम्मेदारी अन्य स्वयसेवियों ने उठायी और सोसाइटीज के गेट के बाहर 24hour एम्बुलेंस खड़ी कर दी | आगे बताता हूँ…. बड़े-बड़े कोरपोरेट्स जिनके एम्प्लॉई ऑल्रेडी वर्क फ़्रम होम कर रहे थे,उनमें से कई ने अपने स्टाफ़ को प्रोत्साहित किया कि चार घंटे आफिस का काम करिए और चार घंटे ऐसे ग्रुप्स से जुड़कर जरूरतमंदों तक सही लीड और मदद पहुँचाइए |

बहुत छोटे से उदाहरण के तौर पर बता दूं कि उत्तर प्रदेश के साधारण से उस जनपद इटावा में जहां संसाधन बहुत सीमित हैं,बीहड़ इलाकों से भी घिरा है,वहां “इटावा कोविड हेल्प डेस्क” ग्रुप के रूप में मयंक भदौरिया, मृत्युंजय चौधरी, अक्षय द्विवेदी और उनकी टीम के एक दर्जन युवा खेवनहार बनके सामने आए और आज इनके लोकहित में सराहनीय कार्य के पीछे भी ऐसे ही कई व्हाट्सएप और फेसबुक ग्रुप्स में इनकी दिन-रात की मेहनत काम कर रही है |

गुरुद्वारों और सिक्खों के सिस्टेम की तो दुनिया क़ायल है… सो वो हमेशा की तरह फिर आगे रहे हैं,नमन के पात्र हैं |

वेल्डिंग वाले से लेकर कारख़ाने वालों तक ने अपने-अपने सिलेंडर और ऑक्सिजन मेडिकल रेक्वायरमेंट में देने शुरू कर दिए थे….सिर्फ़ एक रेमेडीसिवर ऐसे चीज़ थी जो जनता ख़ुद नही बना सकती थी,उसका उत्तरदायित्व आपकी केंद्र और राज्यो की सरकारों का था तो वो 6 हज़ार से 50 हज़ार तक में ब्लैक में बिक चुका है…क्योंकि आपके सिस्टम के लिए रेमडसेविर से अधिक प्रधानी-विधायिकी महत्वपूर्ण थी।इन नए लड़कों के ग्रुप सिर्फ़ ये काम कर रहे है कि शहर के हिसाब से पेशेंट का डेटा बेस निकाल रहे है… और पेशेंट तक इन्हीं नेटवर्क के सहारे मदद पहुँच जाती है।

ऐसे कई लोग सामने आए हैं जो इस महामारी से डरे बिना पूरा का पूरा समय क़ब्रिस्तान और शमशानो में लोगों की मदद करने को बिता रहे हैं, क्यूँकि इन्फ़ेक्शन के डर से वो घर नही जाना चाहते थे। लखनऊ, कानपुर, इटावा, आगरा जैसे बड़े और छोटे शहरों के लड़के बिना पेशेंट को जाने और बिना किसी आर्थिक लाभ के रात भर लाइन लगा के सिलेंडर भराते हैं और भोर में बैटरी वाले रिक्शा पे लाद कर पहुँचा आते हैं |

आज ये ग्रुप्स इतने स्ट्रोंग हो चुके हैं कि सीवान से लेकर बनारस तक, नोएडा से लेकर लखनऊ तक, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक और मुंबई से लेकर चेन्नई तक इस मामले में सक्रिय हैं कि 2 बजे रात में कहाँ ऑक्सिजन रेफ़िल होगा ये तक बता पा रहे हैं…..जबकि प्रशासनिक अमला हाथ में या वाहन पर सिलेंडर देखते ही मुक़दमा लिखता- लिखाता रह गया है।

चिंतनशील मुझ जैसे आम आदमी को आज यही लगता है कि वे सरकारें जिन्होंने भारत पर सालों-साल राज किया… शायद वे भी भारत को नहीं समझ पाए अब तक,भारत की नब्ज नहीं समझ पाए अब तक! …. ये भारत का जो सिस्टेम है न,ये गली मुहल्लों,तालुकाओं और शहरों से होता हुआ नेशन लेवल तक 15 दिन में खड़े होने की ताक़त रखता है… हालाँकि ऐसा बहुत कम हुआ है,जब एक ही आपदा पूरे भारत में एक साथ आ गयी हो,हमारे सामने कोई बड़ा युद्ध नही हुआ, हाँ, आर्थिक मंदी हमने 1991 और 2008 में देखी थी और तब बहुत प्यार से वो समय निकाल हम दुनिया के लिए एक मिसाल बन गए थे… क्यूँकि काम भारत के सिस्टेम को कुछ हद तक समझ कर किया गया था|

बस….सिस्टम से यही शिकायत है कि बिना किसी पैसे और रेसोर्सेज के अगर जनता ये सिस्टम 15-20 दिन में बना सकती थी, तो समय रहते आख़िर हज़ारों करोड़ का टैक्स और पी. एम. केयर फ़ंड लिए महान भारत सरकार क्यूँ सजग नहीं????

सिस्टम नही फ़ेल हुआ है सिस्टम के आकाओं!, फ़ेल हुआ है सिस्टम को मैनेज करने वाला सिस्टम! जिनसे अपेक्षाएं थी, वो इतने प्यारे सिस्टम को समय रहते न समझ पाये और न ही व्यवस्थित कर पाये|

खैर……महान कहानीकार और उपन्यासकार श्रद्धेय प्रेमचंद्र ने गोदान में लिखा था- “सुख के दिन आयें तो लड़ लेना,दुःख तो साथ रोने से ही कटता है।”

हमें पता है कि जो बड़े- बड़े सेलिब्रिटीज के नीचे किसी की पोस्ट का जवाब नहीं देते, तो वे सामान्य नागरिक के प्रश्नों का जवाब क्या देंगे, ….

लेकिन जनता का अधिकार है सवाल करने का सो कर रही है और करती रहेगी। अपन तो पूछेंगे!

Etawah Help Desk (COVID) के योद्धाओं को साधुवाद देती हुई मेरी पोस्ट!

लेखक
अश्वनी कुमार मिश्र
व्याख्याता- कंप्यूटर विज्ञान विभाग,
जनता कॉलेज बकेवर इटावा

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