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कविता: थकान

कवि: डॉ धर्मेंद्र कुमार

थक गई है जिंदगी, के बोझ से मैं दब गया हूं।
तैरती उस लाश के, इक खौफ से मैं डर गया हूं।

क्या? कफन भी ना मिला जो राजशाही जी रहे थे।
थी मिल्कियत लाख की जो रोज सब कुछ पी रहे थे।

मैं समझता अमरता तुझको मिली सौगात में।
देख कर यह दुर्दशा की मौत से मैं डर गया हूं।

तैरती उस लाश के इक खौफ से मैं डर गया हूं।
थक गई है जिंदगी , के बोझ से मैं दब गया हूंl

तू चला -चल -चल रहा था होश क्या तुझको खबर थी ?
तू अहम में चल रहा था मौत पीछा कर रही थी l

बेबस हुआ यह देखकर कि दुर्दशा और हाल यह हैl
बेबसी की इंतहा यह देख कर मैं डर गया हूं l

तैरती उस लाश के इक खौफ से मैं डर गया हूं l
थक गई है जिंदगी के बोझ से मैं डर गया हूंl

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