सार्वजनिक स्थल के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
सुनील पांडेय कार्यकारी संपादक– नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में तीन माह से अधिक तक चले धरने पर सर्वोच्च न्यालय ने कल जो निर्णय दिया वह भविष्य में होने वाले इस तरह के धरना प्रदर्शन पर रोक लगाने की दिशा में एक सराहनीय पहल साबित होगा । जिसका भारतीय जनमानस एवं बुद्धिजीवी वर्ग को ह्रदय से स्वागत करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की इस न्यायिक पीठ ( जिसमें शामिल जस्टिस संजय .के.कौल ,जस्टिस अनिरुद्ध वोस एवं जस्टिस कृष्ण मुरारी ) ने जनता के विरोध करने के अधिकार के दायरे पर अपना निर्णय सुनाया ।
उक्त फैसले को देश की शीर्ष अदालत ने 21 सितंबर को ही सुरक्षित रख लिया था । शीर्ष अदालत की पीठ ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए यह फैसला सुनाते हुए सवाल उठाया कि क्या ऐसी अधिकार की कोई सीमाएं हो सकती है? पीठ ने इस संवेदनशील मुद्दे पर अपना निर्णय देते हुए कहा कि सार्वजनिक स्थलों एवं मार्गों को अनिश्चितकाल तक बाधित या उन पर कब्जा नहीं किया जा सकता ,चाहे वह शाहीन बाग हो या इस तरह कोई अन्य स्थल। इस मामले पर फैसला सुनाते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने आगे कहा कि असहमति व लोकतंत्र साथ साथ चलते हैं, लेकिन विरोध प्रदर्शन निर्धारित क्षेत्र में ही होना चाहिए, क्योंकि सार्वजनिक आवागमन के मार्ग पर प्रदर्शन करना तथा इसमें बड़ी संख्या में लोगों शामिल होना एक तरह से बड़ी संख्या में लोगों के आवागमन के अधिकार का हनन होता है । साथ ही दिल्ली पुलिस एवं प्रशासन को नसीहत देते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि ऐसे कार्यों के लिए अदालत के दखल का इंतजार करना उचित नहीं है ,उन्हें स्वविवेक से निर्णय लेकर कानून के दायरे में संविधान सम्मत कार्य करना चाहिए। प्रशासन को किस तरह से कार्य करना है यह तय करना स्वयं उसकी जिम्मेदारी है। उन्हें कार्यवाही के लिए न्यायालय के कंधे का सहारा नहीं लेना चाहिए । दिल्ली पुलिस शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को कब्जे से मुक्त कराने के लिए कार्यवाही करनी चाहिए थी , भला हो कोरोना संक्रमण जैसी महामारी का जिसकी वजह से यह प्रदर्शन खत्म हुआ ।पीठ ने आगे कहा कि अतिक्रमण हटाने के लिए न्यायिक आदेशों की प्रतीक्षा करना प्रशासनिक अक्षमता को दर्शाता है ,दुर्भाग्य से प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की और इस तरह हमें हस्तक्षेप करना पड़ा।
संविधान प्रदत्त भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों पर टिप्पणी करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भले ही संविधान के तहत शांतिपूर्ण विरोध करने का अधिकार मिला हुआ है ,लेकिन विरोध प्रदर्शन पार्टी की तरफ से एक निश्चित स्थल पर ही होना चाहिए। प्रदर्शन की वजह से आने-जाने वालों कोकिसी तरह से परेशानी नहीं होनी चाहिए। प्रदर्शन के अधिकार में आवागमन के अधिकार जैसे अन्य मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन रखना भी बेहद जरूरी है। इस न्यायिक पीठ ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि प्रत्येक मौलिक अधिकार चाहे वह व्यक्तिगत हो या किसी वर्ग का हो उसे अकेले नहीं देखा जा सकता उसे दूसरे के अधिकारों के साथ साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए।
देश की सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भले ही देर में आया लेकिन इससे भारत की आम जनता को भविष्य में इस तरह की परेशानियों से राहत अवश्य मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय से एक तरह से भारत के राजनीतिक दलों और अन्य सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों आईना दिखाया है । सभी राजनीतिक दल एवं संगठन भविष्य में इस तरह का कोई धरना या विरोध प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें संविधान प्रदत्त कानून के दायरे में रहकर ही करना होगा। यदि वह आगे इस निर्णय से सबक नहीं लेते अथवा भविष्य में इस तरह के गैर जिम्मेदाराना कृत्य करते हैं तो उनके विरुद्ध कानूनी प्रक्रिया द्वारा दंडात्मक कार्यवाही भी की जा सकती है।