पत्रकारिता का संकटकाल !

संवाददाता मोहन सिंह
30 मई 2021 हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। वर्ष 1826 में आज के दिन पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने हिन्दी के पहले अखबार ” का प्रकाशन शुरू किया था। जनसरोकारों के उद्धेश्य से शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता ने अबतक की अपनी यात्रा में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान उसने अपना स्वर्णकाल देखा था। आज़ाद भारत में धीरे-धीरे राजनीति और पैसों के दबाव में वह अपनी धार खोती चली गई। आज वह अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से रूबरू है। अपवादों को छोड़ दें तो उसकी प्रतिबद्धता आमजन के प्रति नहीं, राजनीतिक सत्ता और उससे जुड़े लोगों के प्रति है। देश की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मामले में तो यह प्रतिबद्धता बेशर्मी की तमाम हदें पार कर चुकी है। वज़ह साफ है। चैनल और अखबार चलाना इन दिनों कोई मिशन या आंदोलन नहीं, शुद्ध व्यवसाय है जिसपर किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, देश के बड़े व्यावसायिक घरानों का कब्ज़ा है। उन्हें अपना चैनल या अखबार से कमाने के लिए विज्ञापनों से मिलने वाली भारी रकम चाहिए। यह रकम उन्हें सत्ता और उससे जुड़े व्यवसायी ही उपलब्ध करा सकते हैं। नतीज़तन सिक्के उछाले जा रहे हैं और मीडिया का नंगा नाच ज़ारी है। देश में जो मुट्ठी भर लोग पत्रकारिता को लोकचेतना और सामाजिक सरोकारों का वाहक बनाने की कोशिशों में लगे हैं, उन लोगों के आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का गहरा संकट है।
सभी पत्रकार बंधुओं को शुभकामनाएं, इस अनुरोध के साथ कि कभी खुद से भी यह सवाल पूछें कि क्या मीडिया आज सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने का अधिकारी रह गया है ?