यमुना-चंबल के संगम पर बसा भरेह-इटावा का भारेश्वर शिवमंदिर 444 फीट ऊंचाई पर बना है, मंदिर के बर्रों ने भगाई थी अंग्रेजी सेना
संवाददाता मनोज कुमार राजौरिया : पांडवों के अज्ञातवास का गवाह माना जाता है चंबल का भारेश्वर मंदिर । इटावा कुख्यात डाकुओं की शरणस्थली के तौर पर बदनाम उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में चंबलनदी के किनारे स्थापित भारेश्वर महादेव का हजारों साल पुराना मंदिर महाभारत के मुख्य पात्र पांडवों की आस्था का केंद्र रहा है। भारेश्वर मंदिर 444 फीट ऊंचाई पर बना है, जहां तक पहुंचने के लिए 108 सीढ़ियां हैं। बनारस के विद्वान नीलकंठ भट्ट ने भगवन्त भास्कर नामक ग्रंथ में मंदिर की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है।
“कृत शालिनी मध्य देशे ख्याता भरेह नगरी, किल तत्र राजा राजीव लोचन रतो भगवन्त देवा।”
स्वतंत्रता संग्राम से भी इस मंदिर का ताल्लुक रहा है। बताते हैं कि भरेह के राजा रूपसिंह ने अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ इस स्थल पर सेना की प्रशिक्षण कार्यशाला बनाई थी। गांव निवासी बताते हैं कि एक बार जब अंग्रेजों ने मंदिर को घेर लिया तो मंदिर से निकले बर्रो ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
यमुना चंबल संगम पर स्थित भारेश्वर महादेव मंदिर प्राचीन काल से आध्यात्मिक ज्ञान एवं तपस्या का केंद्र रहा है। मान्यता है कि विद्वान नीलकंठ ने कर्मकांड एवं दंड के 12 मयूक (ग्रंथ) एवं आयुर्वेदिक ग्रंथ इसी मंदिर में रहकर लिखा था। आगरा जाते समय गोस्वामी तुलसीदास भी इस मंदिर में कुछ समय रहे। परमहंस गुंधारी लाल ने भारेश्वर महाराज की तपस्या कर अपना कर्मक्षेत्र ग्राम बडेरा को बनाया। परमहंस पुरुषेात्तम दास महाराज ने बिना भोजन व जल के भोलेनाथ की तपस्या की।
भागवताचार्य पंडित रजनीश त्रिपाठी के अनुसार पांडवों ने अज्ञातवास के समय भगवान श्रीकृष्ण के निर्देश पर शंकर भगवान की आराधना हेतु भीमसेन द्वार व शंकर की विशाल पिंडी की स्थापना की थी, जिसकी द्रोपदी सहित पांचों पांडवों ने पूजा अर्चना की। मान्यता के अनुसार जो भक्त भगवान भोले नाथ की पूजा करके बाहर नंदी के कान में जो भी मनोकामना मांगता है। वह शीघ्र ही पूरी हो जाती है।
मंदिर के पुजारी दयाल राम महाराज बताते हैं कि सीढ़ियों की बनावट व मंदिर का शिखर यह बताता है कि यह द्वापर युगीन है। इस तथ्य पर कई विद्वान भी एक मत हैं। मुगलकाल में जब व्यापार नदियों के माध्यम से होता था। तब भरेह कस्बा उत्तर भारत का प्रमुख व्यापार केंद्र था। उस समय गुजरात व राजस्थान के व्यापारी अपना माल चंबल नदी के माध्यम से तथा आगरा, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा के व्यापारी यमुना नदी के माध्यम से अपना माल इलाहाबाद, बिहार व कलकत्ता भेजते थे, जहां से विदेश तक माल जाता था। उन दिनों यमुना चंबल के संगम पर विशाल भंवरें पड़ती थीं, जिसमें नाव फंसने पर नाव नदी में ही डूब जाती थी। मंदिर निर्माण के पीछे भी कहानी है कि राजस्थान के एक व्यापारी मदनलाल की नाव यहां सैकड़ों साल पहले यमुना के भंवर में फंस गयी थी। सामने भारेश्वर महादेव का मंदिर है जिस कारण व्यापारी ने महादेव से प्रार्थना की यदि उसकी जान बच जाये तो सारा धन मंदिर में लगा देगा। देखते ही देखते व्यापारी की नाव किनारे आ गयी और इस तरह व्यापारी ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तब से लेकर आज तक मंदिर में निर्माण नहीं कराया गया है।